ज़ख्मों को मरहम न मिले, क्या यही इलज़ाम था
बादलों के घूँघट में छिपे चाँद को किया सलाम था
मेरे लफ़्ज़ अलफ़ाज़ से इस जहां में रौशन हुए
मगर मुझे गुम करने का उनका इंतज़ाम था
अक्सर तूफ़ान पंछियों की, बस्तियाँ उजाड़ देते हैं
रियाज़ में मेरा अज़ीज़, उसी को मेरा सलाम था
मेरी इल्तिज़ा में हर एक नब्ज़ थी उसके नाम की
फ़िर भी चैन बेचैन और इक दर्द बेलगाम था
क्या करूँ एहतिराम से "ओमी" ने तारीफ़ बहुत की
लेकिन अपने तसव्वुर में वो खुद ही बदनाम था
- ओम राज पाण्डेय "ओमी"