- ओमराज पाण्डेय

बुधवार, 18 अगस्त 2010

||मेरा अज़ीज़||


ज़ख्मों को मरहम न मिले, क्या यही  इलज़ाम था
बादलों के घूँघट में छिपे चाँद को किया सलाम था


मेरे लफ़्ज़  अलफ़ाज़  से  इस  जहां में  रौशन  हुए 
मगर  मुझे  गुम   करने  का  उनका  
इंतज़ाम था 

अक्सर तूफ़ान 
पंछियों की, बस्तियाँ उजाड़ देते हैं 
रियाज़ में मेरा  अज़ीज़, उसी को मेरा  सलाम था

मेरी  इल्तिज़ा में हर एक नब्ज़ थी के नाम की 
फ़िर  भी  चैन  बेचैन  और  इक  दर्द  बेलगाम  था 

क्या करूँ एहतिराम से "ओमी" ने तारीफ़ बहुत की
लेकिन अपने  
तसव्वुर  में  वो खुद ही बदनाम था 
                              
                              -  ओम राज पाण्डेय "ओमी"

 

13 टिप्‍पणियां:

  1. क्या करूँ एहतिराम के साथ ओमी ने तारीफ़ बहुत की
    लेकिन अपने तसब्बर में वो खुद ही बदनाम था
    .........omi ji aap ki ghazal ka apna alag rutwa rahta hai ,, jab bhi aap likhte hain aisa lagta hai ki haqiqat ho aur kitna gambhir hai kavi .... apni kalam ke prati
    thanx

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  2. yours blog is very good...
    keep it up

    come to my blog
    http://mydunali.blogspot.com/

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  3. क्या करूँ एहतिराम से ओमी ने तारीफ़ बहुत की
    लेकिन अपने तसब्बर में वो खुद ही बदनाम था

    बहुत खूब

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  4. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  5. ब्‍लागजगत पर आपका स्‍वागत है ।






    .सुन्दर रचना............

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  6. wahhh wahhhhhhh .........
    क्या करूँ एहतिराम से ओमी ने तारीफ़ बहुत की
    लेकिन अपने तसब्बर में वो खुद ही बदनाम था

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  7. ज़ख्मों को मरहम न, मिले क्या यही इलज़ाम था |
    बादलों के घूँघट में छिपे, चाँद को किया सलाम था ||

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  8. मेरी इल्तिज़ा में हर एक नब्ज़ थी उसके नाम की
    फ़िर भी चैन बेचैन और इक दर्द बेलगाम था
    umda she'r .........Ameen!!

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